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जो नर होई चराचर द्रोही | आवे सभय सरन ताकि मोहि ||
तजि मद मोह कपट छल नाना | करउ सध्य तेहि साधू समाना ||
जननी जनक बंधू सुत दारा | तनु धनु भवन सुहृद परिवारा ||
सब के ममता ताग बटोरी | मम पद मनही बाँध बरी डोरी ||
समदरसी इच्छा कछु नाही | हरस सोक भय नहीं मन माहि ||
अस सज्जन मम उर बस कैसे | लोभी ह्रदय बसई धनु जैसे ||
भावार्थ - कोई मनुष्य [संपूर्ण] जड़-चेतन जगत का द्रोही हो, यदि वह भी भयभीत होकर मेरी शरण तककर आ जाय और मद, मोह तथा नाना प्रकार के छल-कपट त्याग दे तो मैं सुए बहुत शीघ्र साधू के सामान कर देता हूँ | माता, पिता, भाई, पुत्र, स्त्री, शरीर, धन, घर, मित्र, और परिवार - इन सब के मम्त्वरुपी तागो को बटोरकर और उन सबकी एक डोरी बटकर उसके द्वारा जो अपने मन को मेरे चरणों में बांध देता है (सारे सांसारिक संबंधो का केंद्र मुझे बना लेता है ), जो समदर्शी है, जिसे कुछ इच्छा नहीं है और झिसके मन में हर्ष, शोक और भय नहीं है | ऐसे सज्जन मेरे ह्रदय में कैसे बसता है, जैसे लोभी के ह्रदय में धन बसा करता है |
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