शुक्रवार, 2 अक्टूबर 2015

भर्तृहरि शतक # 3

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किं तेन हेमगिरिणा रजताद्रिणा वा यत्राश्रिताश्च तरवस्तरवस्त एव।
मन्यामहे मलयमेव यदाश्रयेण कंकोलनिम्बकुटजा अपि चंन्दनाः स्युः।।

भावार्थ - चांदी के रंग के उस हिमालय की संगत से भी क्या लाभ होता है, जहां के वृक्ष केवल वृक्ष ही रह गये। हम तो उस मलयाचल पर्वत को ही धन्य मानते हैं जहां निवास करने वाले कंकोल, नीम और कुटज आदि के वृक्ष भी चंदनमय हो गये।

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