रविवार, 29 जनवरी 2017

रामचरित मानस # 16

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जनही मोर बल निज बल ताहि | दुहु कह काम क्रोध रिपु आही |
यह बिचारी पंडित मोहि भजहि | पाएहु ज्ञान भगति नहि तजही ||

भावार्थ - मेरे सेवक को केवल मेरा ही बल रहता है और ज्ञानी को अपना बल होता है | पर काम-क्रोध रूपी शत्रु तो दोनों के लिए है | [ भक्त के शत्रुओ को मरने की जिम्मेवारी मुझ पर रहती है, क्योंकि वह मेरे परायण होकर मेरा ही बल मानता है, परन्तु अपने बल को मानने वाले ज्ञानी के शत्रुओ का नाश करने की जिम्मेवारी मुझ पर नहीं है | ऐसा विचारकर बुध्हिमान लोग मुझको ही भजते है | वे ज्ञान प्राप्त होने पर भी भक्ति को नहीं छोड़ते |

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