रविवार, 29 मई 2011

रामचरित मानस # ११ (नवधा भक्ति)

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प्रथम भगति संतन्ह कर संग | दूसरी रति मम कथा प्रसंगा ||
गुर पद पंकज सेवा तीसरी भगति अमान |
चौथी भगति मम गुण गन करइ कपट तजि गान ||
मंत्र जाप मम दृड़ बिस्वासा | पंचम भजन सो बेद प्रकासा ||
छठ दम सील बिरति बहु करमा | निरत निरंतर सज्जन धरमा ||
सातव सम मोहि माय जग देखा | मोते संत अधिक करी लेखा ||
आठव जथालाभ संतोषा | सपनेहु नहीं देखइ परदोषा ||
नवम सरल सब सन छलहीना | मम भरोस हिय हरष न दीना ||

भावार्थ -

पहली भक्ति है संतो का सत्संग |
दूसरी भक्ति है मेरे कथा -प्रसंग में प्रेम |
तीसरी भक्ति है अभिमानरहित होकर गुरु के चरण-कमलो की सेवा
चौथी भक्ति यह है की कपट छोड़कर मेरे गुणसमुहो का गान करे |
मेरे मंत्र का जाप और मुझ में दृढ विश्वास - यह पांचवी भक्ति है, जो वेदों में प्रसिद्ध है |
छठी भक्ति है इन्द्रियों का निग्रह, शील (अच्छा स्वभाव या चरित्र) बहुत कार्यो से वैराग्य और निरंतर संत पुरुषो के धर्म में लगे रहना |
सातवी भक्ति है जगत्भर को समभाव से मुझमें ओतप्रोत देखना और संतो को मुझसे भी अधिक करके मानना |
आठवी भक्ति है जो कुछ मिल जाय, उसी में संतोष करना और स्वप्न में भी पराये दोषों को न देखना |
नवी भक्ति है सरलता और सब के साथ कपट रहित बर्ताव करना, ह्रदय में मेरा भरोसा रखना और किसी भी अवस्था में हर्ष और दैन्य (विषाद) का न होना |

############ ॐ ###############

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